नमस्कार दोस्तों ,
बच्चो के शरीर में नहीं आ रही ताकत, फास्ट फूड भी है कुपोषण का एक बड़ा कारण, ऐसे डालें फूड हैबिट्स
कुपोषण वास्तव में घरेलू खाद्य असुरक्षा का सीधा परिणाम है। सामान्य रूप में खाद्य सुरक्षा का अर्थ है सब तक खाद्य की पहुंच, हर समय खाद्य की पहुंच और सक्रिय और स्वस्थ्य जीवन के लिए पर्याप्त खाद्य। जब इनमें से एक या सारे घटक कम हो जाते हैं तो परिवार खाद्य असुरक्षा में डूब जाते है। खाद्य सुरक्षा सरकार की नीतियों और प्राथमिकताओं पर निर्भर करती है। भारत का उदाहरण ले जहां सरकार खाद्यान्न के ढेर पर बैठती है (एक अनुमान के अनुसार यदि बोरियों को एक के उपर एक रखा जाए तो आप चांद तक पैदल आ-जा सकते हैं)। पर उपयुक्त नीतियों के अभाव में यह जरूरत मंदों तक नहीं पहुंच पाता है। अनाज भण्डारण के अभाव में सड़ता है, चूहों द्वारा नष्ट होता है या समुद्रों में डुबाया जाता है पर जन संख्या का बड़ा भाग भूखे पेट सोता है।

कुपोषण बच्चों को सबसे अधिक प्रभावित करता हैं। यह जन्म या उससे भी पहले शुरू होता है और 6 महीने से 3 वर्ष की अवधि में तीव्रता से बढ़ता है। इसके परिणाम स्वरूप वृध्दि बाधिता, मृत्यु, कम दक्षता और 15 पाइंट तक आईक्यू का नुकसान होता है। सबसे भयंकर परिणाम इसके द्वारा जनित आर्थिक नुकसान होता है। कुपोषण के कारण मानव उत्पादकता 10-15 प्रतिशत तक कम हो जाती है जो सकल घरेलू उत्पाद को 5-10 प्रतिशत तक कम कर सकता है। कुपोषण के कारण बड़ी तादाद में बच्चे स्कूल छोड़ देते हैं। कुपोषित बच्चे घटी हुई सिखने की क्षमता के कारण खुद को स्कूल में रोक नहीं पाते। स्कूल से बाहर वे सामाजिक उपेक्षा तथा घटी हुई कमाऊ क्षमता तथा जीवन पर्यंत शोषण के शिकार हो जाते है। इस कारण बड़ी संख्या में बच्चें बाल श्रमिक या बाल वैश्यावृत्ति के लिए मजबूर हो जाते हैं। बड़े होने पर वे अकुशल मजदूरों की लम्बी कतार में जुड़ जाते हैं जो राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था पर भारी बोझ बनता है।
कुपोषण जन्म या उससे भी पहले शुरू होता है और 6 माह से 3 वर्ष की अवधि में तीव्रता से बढ़ता है। 6 माह से 3 वर्ष की उम्र में बच्चे के लिए मॉ का दूध पर्याप्त नहीं होता। बच्चा खुद खा पाने या मांग पाने में असमर्थ होता है। उसको बार-बार नरम भोजन की जरूरत होती है जो उसे कोई वयस्क ही खिला सकता है। माताओं को अजीविका कमाने के साथ-साथ और भी कई घरेलू काम करने पड़ते हैं जैसे-पकाना, पानी लाना, सफाई करना आदि। उनमें इतनी ऊर्जा या समय नहीं बचता कि वह बच्चे को बार-बार खिला सके। परिवार में भी अन्य वयस्क इसे सिर्फ मॉ की जिम्मेदारी समझते हैं। बचपन में कुपोषित बच्चे को बाद में सुधार की संभावना बहुत कम होती है। मध्यान्ह भोजन, छात्रवृत्ति, बाल श्रमिकों के लिए विशेष स्कूल आदि सहायक तो है किन्तु पहले 6 वर्षों के नुकसान की भरपाई नहीं कर सकते।
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कुपोषण मुख्यत: 6 रूपों में नजर आता है जो क्रमश: –
1. जन्म के समय कम वजन
2. बचपन में बाधित विकास
3. अल्प रक्तता
4. विटामिन ए की कमी
5. आयोडिन कमी संबंधित बिमारियां
6. मोटापा
बच्चों में कुपोषण मुख्यत: दो प्रकार का होता है :-
1.सूखे वाला कुपोषण
2 . सूजन वाला कुपोषण
- कुपोषण के सूचक बच्चे की उम्र एंव ऊंचाई के अनुरूप उसका वजन कम होना ।
- उसके हाथ-पैर पतले और कमजोर होना और पेट बढ़ा होना ।
- बच्चे को बार-बार संक्रमण होना और बीमार होना ।

और स्वास्थ के संबध 500 लाख से ज्यादा ऐसे परिवार हैं जो अति गरीब की श्रेणी में आते हैं। इसका मतलब यह है कि आधी आबादी को दो वक्त की रोटी भी नसीब नहीं हो पाती है। यह सिध्द हो चुका है कि पर्याप्त भोजन नहीं मिलने पर शरीर की रोगों से लड़ने की क्षमता कम हो जाती है और वह शीघ्र ही बीमारियों की चपेट में आ जाता है। जन्म के समय ढाई किलो से कम वजन होने पर बच्चे के बहुत कम उम्र में मरने की संभावना तीन गुना बढ़ जाती है। जबकि जहां कुपोषण ज्यादा होता है वहां खसरा से होने वाली मौतों की दर सामान्य से चार सौ गुना ज्यादा होती है।
3 वर्ष पूर्व राष्ट्रीय पोषण संस्थान द्वारा किये गये अध्ययन से पता चलता है कि मध्यप्रदेश भारत में कुपोषण का सबसे ज्यादा शिकार राज्य है और यहां बच्चों की रोग प्रतिरोधक क्षमता बहुत क्षीण हो चुकी है। कुपोषित बच्चों पर दस्त का प्रकोप सामान्य से 4 गुना अधिक होता है। खून की कमी की शिकार औंरतों में मातृत्व सम्बन्धी मौतें स्वस्थ्य औरतों की तुलना में पांच गुना ज्यादा होती हैं। अध्ययनों से पता चलता है कि कुल मरीजों में से करीब तीन-चौथाई की रूग्णता का कारण कुपोषण या उससे जुड़ी अन्य दिक्कतें हो सकती हैं।
उम्मीद करता हूं कि आपको यह जानकारी अच्छी लगी होगी ऐसी ही जानकारी के लिए हमारे साथ बने रहे।